आठ लुप्त नदियों को प्रवाहमान बनाने का काम शुरू:शिप्रा को सदानीरा करने के लिए उसकी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास

शिप्रा को प्रवाहमान बनाने के लिए उसकी आठ सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने का काम शुरू हो गया है। यह वे नदियां हैं जो पूर्व में सदानीरा थीं, लेकिन धीरे-धीरे लुप्त हो गईं और इनका अस्तित्व केवल किताबों और किंवदंतियों तक सीमित होकर रह गया। इसके लिए स्थानीय लोग आगे आए हैं। ग्रामीणों ने नदी के रास्ते में आ रही उनकी निजी जमीन भी स्वेच्छा से छोड़ दी है।

शिप्रा संरक्षण अभियान के तहत सहायक नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे पहले एक सहायक नदी चंद्रभागा को चुना गया। इसके लिए पर्यावरणविद् अनिलप्रकाश जोशी ने भी श्रमदान किया। वे वनस्पति विज्ञान में एसएससी और पीएचडी हैं। वे कोटद्वार डिग्री कॉलेज में लेक्चरर थे। उन्हें 2006 में पद्मश्री और 2020 में पद्मभूषण अलंकरण मिल चुका है।

अभियान से जुड़े सोनू गेहलोत बताते हैं ग्रामीणों ने खुद ही संसाधन जुटाए और परिजन सहित श्रमदान भी किया। उसका नतीजा यह है कि चंद्रभागा में जलधारा बह निकली।मोहनपुर, बड़नगर रोड पर लोगों ने श्रमदान किया। परिणामस्वरूप शिप्रा की सहायक चंद्रभागा नदी के प्रवाह मार्ग में जलधारा प्रकट हो गई। गांव के दशरथ पटेल ने बताया श्रमदान के साथ लोगों ने खुद की जमीन भी दे दी। वर्तमान में मोहनपुरा से मुल्लापुरा तक काम हो गया है। मुल्लापुरा से सोमतीर्थ तक का काम अगली ग्रीष्म ऋतु में करवाया जाएगा।

चंद्रभागा में साफ पानी

अभियान से जुड़े सोमेश्वर गेहलोत ने बताया जिस जगह जलधारा प्रकट हुई है, वहां 12 फीट खुदाई कर नदी का रास्ता बनाया है। पानी साफ है। खुदाई में 3 फीट तक काली और पीली मिट्टी निकली। इसके बाद हरी मुरम और नीचे चूने की सतह मिली है। साफ पानी की वजह चूने और मुरम की परत होना बताया जाता है।

शहरीकरण ने बिगाड़ा मौसम-ए-मालवा; 36 साल में 22% तक जंगल साफ, नतीजा- असामान्य बारिश, भीषण गर्मी
रतलाम – उफ… कितनी गर्मी है, अरे… यह कैसी बारिश। यह शब्द हर मौसम में हम सुनते हैं, लेकिन कभी सोचा है ऐसा मौसम क्यों? जी हां, मौसम-ए-मालवा अब बिगड़ चुका है। गुनहगार हम ही हैं, क्योंकि 1985 से अब तक तेजी से जंगल साफ हुए हैं। रतलाम में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.5 फीसदी जंगल था, जो कि 1.55 फीसदी ही बचा हैं, यानी 22.95 फीसदी तक वन क्षेत्र कम हो चुका है।

समीपी जिले झाबुआ में 28.0 फीसदी जंगल था, जो अब 6.12 फीसदी ही बचा है। हमें इसके परिणाम तो भुगतना ही होंगे। सीधा असर मौसम पर दिख रहा है, 1985 में गर्मी में औसत तापमान 33 से 39 डिग्री तक रहता था, जो कि अब किसी दिन 40 से कम हो तो खुशी होती है। ऐसे ही जून और सितंबर में राहत देने वाली बारिश भी घट गई है।

पढ़िए… 1985 से अब तक का वन क्षेत्र कम होनेे और मौसम में बदलाव का सफरनामा…।
भुगतना होंगे परिणाम… जंगल कटे, लेकिन बढ़ने की रफ्तार धीमी

वन क्षेत्र तेजी से कम हुए हैं, लेकिन अब बढ़ रहे हैं, लेकिन कछुआ चाल से। 2021 में आई फॉरेस्ट रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के 11 जिले भिंड, सीधी, मुरैना, छिंदवाड़ा, रीवा, रतलाम, दतिया, शिवपुरी, पन्ना, ग्वालियर और उज्जैन में जंगल बढ़े हैं। रतलाम में 2017 में 1.13% जंगल थे, जो कि 2019 में 1.23%, 2021 में 1.55% जंगल हो गए।

इधर, इंदिरा सागर बांध के तीन टापुओं पर तैयार किया जा रहा वन, मियावाकी विधि का उपयोग

पुनासा (खंडवा)| मन में विश्वास और काम के प्रति जुनून हो तो हर लक्ष्य पाया जा सकता है। एेसा लक्ष्य पाया पुनासा जनपद की रीछी पंचायत ने। पंचायत का बेडानी गांव इंदिरा सागर बांध के बैकवॉटर से सटा है। गांव से लगी बैकवॉटर की करीब 100 एकड़ जमीन पर तीन टापू बने हैं। सरपंच ने इस पर वृक्षारोपण कर यहां पर्यटन स्थल बनाने का विचार किया। प्रस्ताव बनाकर जनपद को सौंपा। यह प्रस्ताव सीईओ को पसंद आया तो उन्होंने तत्काल मंजूरी दे दी। मनरेगा योजना का लाभ लेकर सरपंच ने तीन साल में इन तीन टापुओं पर 14 हजार पौधों का प्राकृतिक वन खड़ा कर दिया। यह सभी पौधे जीवित हैं। इन पौधों के बीच अब पर्यटकों के लिए झोपड़ी बनाकर रहने के लिए ग्रामीण परिवेश देने का प्रयास किया जा रहा है। पेड़-पौधों और अथाह पानी के बीच पर्यटक यहां प्रकृति का आनंद ले सकेंगे।

धार – 4.80 कराेड़ खर्च कर लगाए थे 49 हजार पाैधे, वहां नजर आ रहे सिर्फ डंठल

दो साल पहले वन विभाग ने भेरूघाट मंदिर के समीप और केशवी के दाे स्थानाें काे चिह्नित कर 4 कराेड़ 80 लाख रुपए खर्च कर 100 हेक्टेयर जमीन पर 32 प्रजाति के 49 हजार पाैधे लगाए थे। दावा किया था जंगल सुरक्षित रहेगा। 48 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर राशि भी खर्च की गई। पाैधाें की सुरक्षा के लिए तार फेंसिंग तक कराई गई। इसका भुगतान भी हो गया, लेकिन हालत ये है कि यहां पौधे बड़े हुए नहीं, सिर्फ डंठल ही दिखाई दे रहे हैं।

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